Saturday, November 17, 2012
Thursday, November 1, 2012
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग हिंदू मेरा परिचय।
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग हिंदू मेरा परिचय।
मैं शंकर का क्रोधानल कर सकता जगती छार छार ।
डमरू की वह प्रलय ध्वनि हूँ जिसमें नाचता भीषण संग्हार ।
रणचंडी की की अतृप्त प्यास, मैं दुर्गा का उन्मंत हास ।
मैं यम् की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुंआधार ।
फिर अंतर्मन की ज्वाला से जगती मैं आग लगा दूँ मैं ।
यदि दधक उठे जल, थल, अम्बर, जड़, चेतन तो कैसा विसमए ?
हिंदू तन मन, हिन्दू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय ।
मैं आदि पुरूष, निर्भयता का वरदान लिए आया भू पर ।
पय पि कर सब मरते आए, मैं अमर हुआ लो विष पि कर ।
अधरों की प्यास बुझाई है, पि कर मैंने वह आग प्रखर ।
हो जाती दुनिया भस्मसात, जिसको पल बार मैं ही छु कर ।
भय से व्याकुल फिर दुनिया ने प्रारम्भ किया मेरा पूजन ।
मैं नर, नारायण, नीलकंठ बन गया न इसमें कोई संशय ।
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय ।
मैं तेजपुंज, तम्लीन जगत मैं फैलाया मैंने प्रकाश ।
जगती का रच करके, कब चाह है निज का विकास ?
शरणागत की रक्षा की है, मैंने अपना जीवन दे कर ।
विश्वास नहीं आता तो साक्षी है यह इतहास अमर ।
यदि आज देल्ली के खंडहर, सदियों की निंद्रा से जागकर ।
गुंजार उठे उचे स्वर से 'हिंदू की जय' तो कैसा विस्मय ?
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय ।
मैंने छाती का लहू पिला पाले विदेश के शुधित लाल ।
मुझ को मानव में भेद नेहं, मेरा अंतस्थल वर विशाल ।
जग के ठुकराए लोगों को, लो मेरे घर का खुला द्वार ।
अपना सब कुछ हूँ लुटा चुका, फिर भी अक्षय है धनगर ।
मेरा हीरा पाकर ज्योतित परकीयों का वह राजमुकुट ।
यदि इन चरणों पर झुक जाए वह किरीट तो क्या विस्मय ?
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय ।
मैं वीर पुत्र, मेरी जननी के जगती मैं जोहर आपर ।
अकबर के पुत्रों से पुचो क्या याद उन्हें मीना बाज़ार ? ओकर स्वतंत्र
क्या याद उन्हें चित्तोर दुर्ग मैं जलने वाली आग प्रखर ?
जब हाय सहस्त्रों माताएं, तिल-तिल जल कर हो गई अमर ।
वह बुजने वाली आग नहीं, रग-रग मैं उसे समाये हूँ ।
यदि कभी आचानक फूट पड़े विप्लव ले कर तो कैसा विस्मय ?
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय ।
होकर स्वतंत्र मैंने कब चाहा है कर लूँ जग कको गुलाम ?
मैंने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम ।
गोपाल-राम के नामों पर कब मैंने आत्याचार किए ?
कब दुनिया को हिंदू करने घर-घर मैंने नरसंघार किए ?
कोई बतलाये काबुल मैं जा कर कितनी मस्जिद तोडी ?
भूभाग नहीं, शत शत मानव के हृदय जितने का निश्चय ।
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय ||"
परम पूज्यनीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी द्वारा रचित
मैं शंकर का क्रोधानल कर सकता जगती छार छार ।
डमरू की वह प्रलय ध्वनि हूँ जिसमें नाचता भीषण संग्हार ।
रणचंडी की की अतृप्त प्यास, मैं दुर्गा का उन्मंत हास ।
मैं यम् की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुंआधार ।
फिर अंतर्मन की ज्वाला से जगती मैं आग लगा दूँ मैं ।
यदि दधक उठे जल, थल, अम्बर, जड़, चेतन तो कैसा विसमए ?
हिंदू तन मन, हिन्दू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय ।
मैं आदि पुरूष, निर्भयता का वरदान लिए आया भू पर ।
पय पि कर सब मरते आए, मैं अमर हुआ लो विष पि कर ।
अधरों की प्यास बुझाई है, पि कर मैंने वह आग प्रखर ।
हो जाती दुनिया भस्मसात, जिसको पल बार मैं ही छु कर ।
भय से व्याकुल फिर दुनिया ने प्रारम्भ किया मेरा पूजन ।
मैं नर, नारायण, नीलकंठ बन गया न इसमें कोई संशय ।
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय ।
मैं तेजपुंज, तम्लीन जगत मैं फैलाया मैंने प्रकाश ।
जगती का रच करके, कब चाह है निज का विकास ?
शरणागत की रक्षा की है, मैंने अपना जीवन दे कर ।
विश्वास नहीं आता तो साक्षी है यह इतहास अमर ।
यदि आज देल्ली के खंडहर, सदियों की निंद्रा से जागकर ।
गुंजार उठे उचे स्वर से 'हिंदू की जय' तो कैसा विस्मय ?
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय ।
मैंने छाती का लहू पिला पाले विदेश के शुधित लाल ।
मुझ को मानव में भेद नेहं, मेरा अंतस्थल वर विशाल ।
जग के ठुकराए लोगों को, लो मेरे घर का खुला द्वार ।
अपना सब कुछ हूँ लुटा चुका, फिर भी अक्षय है धनगर ।
मेरा हीरा पाकर ज्योतित परकीयों का वह राजमुकुट ।
यदि इन चरणों पर झुक जाए वह किरीट तो क्या विस्मय ?
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय ।
मैं वीर पुत्र, मेरी जननी के जगती मैं जोहर आपर ।
अकबर के पुत्रों से पुचो क्या याद उन्हें मीना बाज़ार ? ओकर स्वतंत्र
क्या याद उन्हें चित्तोर दुर्ग मैं जलने वाली आग प्रखर ?
जब हाय सहस्त्रों माताएं, तिल-तिल जल कर हो गई अमर ।
वह बुजने वाली आग नहीं, रग-रग मैं उसे समाये हूँ ।
यदि कभी आचानक फूट पड़े विप्लव ले कर तो कैसा विस्मय ?
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय ।
होकर स्वतंत्र मैंने कब चाहा है कर लूँ जग कको गुलाम ?
मैंने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम ।
गोपाल-राम के नामों पर कब मैंने आत्याचार किए ?
कब दुनिया को हिंदू करने घर-घर मैंने नरसंघार किए ?
कोई बतलाये काबुल मैं जा कर कितनी मस्जिद तोडी ?
भूभाग नहीं, शत शत मानव के हृदय जितने का निश्चय ।
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय ||"
परम पूज्यनीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी द्वारा रचित
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